गृहस्थ आश्रम में रहता हुआ भी मनुष्य त्याग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त कर सकता है | परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ‘ त्याग’ ही मुख्य साधन है| अतएव सात श्रेणियों में विभक्त करके त्याग के त्याग के लक्षण संक्षेपमें लिखे जाते हैं -
(१.) निषिद्ध कर्मोंका सर्वथा त्याग -
चोरी, व्यभिचार, झूट, कपट, छल, जबरदस्ती, हिंसा, अभक्ष्यभोजन और प्रमाद आदि शास्त्रविरुद्ध नीच कर्मोंको मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी न करना , यह पहली श्रेणी का त्याग है ।
(२). काम्य कर्मों का त्याग -
स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के उद्देश्य से एवं रोग संकटादिकी निवृतिके उद्देश्य से किये जानेवाले यज्ञ, दान तप और उपासनादि सकाम कर्मों को अपने स्वार्थके लिए न करना *, यह दूसरी श्रेणी का त्याग है ।
(३). तृष्णा त्याग -
मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा एवं स्त्री, पुत्र और धनादि जो कुछ भी अनित्य पदार्थ प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए हों, उनके बढ़ने की इच्छाको भगवप्राप्तिमें बाधक समझकर उसका त्याग करना, यह तीसरी श्रेणीका त्याग है ।
(४.) स्वार्थके लिए दूसरों से सेवा करवानेका त्याग-
अपने सुख के लिए किसीके भी धनादि पदार्थों अथवा सेवा करानेकी याचना करना एवं बिना याचना के दिए पदार्थों या की हुई सेवको स्वीकार करना तथा किसी प्रकार भी किसीसे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेकी मन में इच्छा रखना इत्यादि जो भी जो स्वार्थके लिए दूसरों से सेवा करने भाव हैं, उन सबका त्याग करना, * यह चौथी श्रेणी का है ।
(५.) सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंमें आलश्य और फलकी इच्छाका सर्वथा त्याग -
ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन,माता- पितादि गुरुजनोंकी सेवा, यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रमके अनुसार आजीविकाद्वारा गृहस्थका निर्वाह एवं शरीरसम्बन्धी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सब में आलस्यका और सब प्रकार की कामना का त्याग करना -
(क ) इस्वर- भक्तिमें आलस्य का त्याग-
अपने जीवनका परमकर्तव्य मानकर परमदयालु, सबके सुहृद, परमप्रेमी, अंतर्यामी परमेश्वर के गुण, प्रभाव प्रेम की रहस्यमई कथा का श्रवण, मनन और पठन-पाठन करना तथा आलस्य रहित होकर उनके परम पुनीत नाम का उत्साहपूर्वक ध्यान सहित निरंतर जप करना।
( ख) ईश्वर- भक्ति में आलस्य का त्याग-
इस लोक और परलोक के संपूर्ण भागों को क्षणभंगुर नाशवान और भगवान की भक्ति में बाधक समझ कर किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिए नहीं तो भगवान से प्रार्थना करना और न मन में इच्छा रखना तथा किसी प्रकार का संकट आ जाने पर भी उसके निवारण के लिए भगवान से प्रार्थना ना करना अर्थात ह्रदय में ऐसा भाव रखना कि प्राण चले जायँ, परंतु इस मिथ्या जीवन के लिए विशुद्ध भक्ति में कलंक लगाना उचित नहीं है। जैसे भक्त प्रहलाद ने पिता द्वारा बहुत सताया जाने पर भी अपने कष्ट निवारण के लिए भगवान से प्रार्थना नहीं की। अपना अनिष्ट करने वालों को भी ‘ भगवान तुम्हारा बुरा करें’ इत्यादि किसी प्रकार के कठोर शब्दों से शाप न देना और उनका अनिष्ट होने की मन में इच्छा भी न रखना। भगवान की भक्ति के लिए अभिमान में आकर किसी को वरदानादि न देना, जैसे कि ‘भगवान तुम्हें आरोग्य करें’,’ भगवान तुम्हारा दुःख दूर करें’, भगवान तुम्हारीआयु बढ़ावें’ इत्यादि।
पत्र - व्यवहार में भी सकाम शब्दों का नहीं लिखना अर्थात जैसे ‘ अठे उठे श्री ठाकुरजी सहाय छै’,ठाकुर जी बिक्री चलसी’, ठाकुर जी वर्षा करसी’, ‘ठाकुर जी आराम करासी’ इत्यादि सांसारिक वस्तुओं के लिए ठाकुर जी से प्रार्थना करने के रूप में सकाम शब्द मारवाड़ी समाज में प्राय लिखे जाते हैं, वैसे न लिखकर ‘ श्री परमात्मा देव आनंद रूप से सर्वत्र विराजमान हैं’, ‘ श्री परमेश्वर का भजन सार है’ ईत्यागी निष्काम मांगलिक शब्द लिखना तथा इसके सिवाय अन्य किसी प्रकार से भी लिखने-बोलने आदि में सकाम शब्दों का प्रयोग न करना।
( ग ) देवताओं के पूजन में आलस्य और कामना का त्याग -
शास्त्र - मर्यादा से अथवा लोक मर्यादा से पूजने के योग्य देवताओं को पूजने का नियत समय आने पर उनका पूजन करने के लिए भगवान की आज्ञा एवं भगवान की आज्ञा का पालन करना परम कर्तव्य है, ऐसा समझकर उत्साहपूर्वक विधि के सहित उनका पूजन करना एवं उनसे किसी प्रकार की भी कामना न करना।
उनके पूजन के उद्देश्य से रोकड़, बहीखाते आदि में भी सकाम शब्द न लिखना अर्थात जैसे मारवाड़ी समाज में नए बसने के लिए अथवा दीपमालिका के दिन लक्ष्मीजी का पूजन करके ‘ लक्ष्मी जी लाभ मोकलो देसी’, ‘ भंडार भरपुर राखसी’, ‘रिधि - सिद्धि करसी’, ‘ श्री कालाजी के आश्र’, श्री गंगा जी के आश्रय’ इत्यादि बहुत से स काम शब्द लिखे जाते हैं, वैसे ना लिखकर श्री लक्ष्मी नारायण जी सब जगह आनंद रूप से विराजमान हैं’ तथा ‘ बहुत आनंद और उत्साह के सहित श्री लक्ष्मी जी का पूजन किया’ इत्यादि निष्काम मांगलिक शब्द लिखना और लिखते रोकड़, नकल आदि के आरंभ करने में भी उपयुक्त रीति से ही रखना।
(घ ) माता- पितादि गुरुजनोंकी सेवा में आलस्य और कामना का त्याग-
माता, पिता, आचार्य एवं और भी जो पूजनीय वर्ण, आश्रम अवस्था और गुणोंमें किसी प्रकार भी अपने से बड़े हो, उन सबकी सब प्रकार से विधि सेवा करना और उनको नित्य प्रणाम करना मनुष्य का परम कर्तव्य है। इस भाव को ह्रदय में रखते हुए आलस्य का सर्वथा त्याग करके, निष्काम भाव से उत्साहपूर्वक भगवदाज्ञानुसार उनकी सेवा करने में तत्पर रहना।
( ङ ) यज्ञ, दान और तप शुभ कार्यों में आलस्य और कामना का त्याग-
पंचमहायज्ञादि * नित्य कर्म अन्यान्य नैमित्तिक कर्मरूप यज्ञादि का तथा अन्ना, वस्त्र, विद्या, औषध और धनादि पदार्थों के दान द्वारा संपूर्ण जीवो को यथायोग्य सुख पहुंचाने के लिए मन, वाणी और शरीर से अपनी शक्ति के अनुसार चेष्टा करना तथा अपने धर्मका पालन करने के लिए हर प्रकार से कष्ट सहन करना इत्यादि शास्त्रविहित कर्मों में इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों की कामना का स्वार्थ त्याग करके एवं अपना परम कर्तव्य मानकर श्रद्धा सहित उत्साहपूर्वक भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ ही आचरण करना।
(च ) आजीविका द्वारा ग्रहस्थ- निर्वाह के उपयुक्त कर्मों में आलश्य और कामना का त्याग-
आजीविका के कर्म जैसे वैश्य के लिए कृषि, गोरक्ष्य और वाणिज्य आदि कहे हैं , वैसे ही जो अपने- अपने वर्ण, आश्रम के अनुसार शास्त्रों में विधान किए गये हों, उन सबके पालनद्वारा संसार का हित्त करते हुए ही ग्रहस्थ का निर्वाह करने के लिए भगवान की आज्ञा है। इसलिए अपना कर्तव्य मानकर लाभ- हानिको समान समझते हुए सब प्रकार की कामनाओं का त्याग करके उत्साहपूर्वक उपयुक्त कर्मों का करना।
(छ ) शरीरसम्बन्धी कर्मों में आलस्य कामना का त्याग-
शरीर- निर्वाह के लिए शास्त्रोक्त रीति से भोजन,वस्त्र और ओषधादिके सेवनरूप जो शरीरसंबंधी कर्म हैं। उनमें सब प्रकार के भोगविलासों की कामना का त्याग कर के एवं सुख-दु:ख,लाभ-हानि जीवन-मरण आदिको समान समझ कर केवल भगवत्प्राप्ति के लिये ही योग्यता के अनुसार उनका आचरण करना।
पूर्वोक्त चार श्रेणियोंके त्यागसहित इस पांचवी श्रेणी के त्यागानुसार संपूर्ण दोषों काऔर सब प्रकार की कामनाओं का नाश हो कर केवल एक भगवत्प्राप्तिकी की तीव्र इच्छा का होना ज्ञान की पहली भूमिका में परिपक्व अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण समझने चाहिए।
(६ ). संसार के संपूर्ण पदार्थों में और कर्मों में ममता और आसक्ति का सर्वथा त्याग-
धन, भवन और वस्त्र आदि संपूर्ण वस्तुएं तथा स्त्री और मित्रादि संपूर्ण बांधवजन एवं मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा इत्यादि इस लोक के और परलोक के जितने विषय भोग रूप पदार्थ हैं, उन सबको क्षणभंगुर और नाशवान होने के कारण अनित्य समझकर उनमें ममता और आसक्ति न रहना तथा केवल एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही अनन्यभावसे विशुद्ध प्रेम होने के कारण मन,वाणी और शरीर द्वारा होने वाली संपूर्ण क्रियाओं और शरीर में भी ममता और आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाना, यह छठी श्रेणी का त्याग है।
उक्त छठी श्रेणी के त्याग को प्राप्त हुए पुरुषों का संसार के संपूर्ण पदार्थों में वैराग्य होकर केवल एक परम प्रेममय भगवान में ही अनन्य प्रेम हो जाता है। इसीलिये उनको भगवान के गुण, प्रभाव और रहस्य से भरी हुई विशुद्ध प्रेम के विषय की कथाओं का सुनना- सुनाना और मनन करना तथा एकांत देश में रहकर निरंतर भगवान का भजन, ध्यान और शास्त्रों के मर्म का विचार करना ही प्रिय लगता है। विषयासक्त मनुष्यों में रहकर, हास्य विलास, प्रमाद, निंदा,विषय भोग और व्यर्थ वार्तादिमें अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी बिताना अच्छा नहीं लगता एवं उनके द्वारा संपूर्ण कर्तव्य कर्म भगवान के स्वरुप और नाम का मनन रहते हुए ही बिना आसक्ति के केवल भगवदर्थ होते हैं।
इस प्रकार संपूर्ण पदार्थों में और कर्मों में ममता और आसक्ति का त्याग होकर केवल एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही विशुद्ध प्रेम का होना ज्ञान की दूसरी भूमिका में परिपक्व अवस्था को प्राप्त हुए पुरुषों के लक्षण समझने चाहिये।
(७) संसार, शरीर और संपूर्ण कर्मों में सुक्ष्म वासना और अहंभावका सर्वथा त्याग -
संसार के संपूर्ण पदार्थ माया के कार्य होने से सर्वदा अनित्य हैं और एक सच्चिदानंदघन परमात्मा की सर्वत्र समभाव से परिपूर्ण है; ऐसा दृढ़ निश्चय होकर शरीर सहित संसार के संपूर्ण पदार्थों में और सम्पूर्ण कर्मों में सूक्ष्म वासना का सर्वथा अभाव हो जाना अर्थात अंतः करण में उनके चित्रों का संसार रूप से भी न रहना एवं शरीर में अहंभाव का सर्वथा अभाव होकर मन, वाणी और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान का लेशमात्र भी न रहना, यह सातवीं श्रेणी का त्याग है१ ।
इस सातवीं श्रेणी के त्याग रूप वैराग्य को२ प्राप्त हुए पुरुषों के अंतः करण की वृतियां संपूर्ण संसार से अत्यंत उपराम हो जाती है। इसी काल में कोई सांसारिक फुरना हो भी जाती है तो भी उसके संस्कार नहीं जमते; क्योंकि उनकी एक सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्यभावसे गाढ़ स्थिति निरंतर बनी रहती है ।
इसलिए उनके अंत:कारण में संपूर्ण अवगुणों का अभाव होकर अहिंसा१ , सत्य२ ,अस्तेय ३, ब्रह्मचर्य४, अपैशुनता ५, लज्जा, अमानित्व ६ , निष्कपटता, शौच ७ , संतोष ८, तितिक्षा ९, सत्संग, सेवा, यज्ञ, दान, तप १०, स्वाध्याय ११ , शाम १२, दम १३, विनय, आर्जव १४ , दया१५, श्रद्धा १६, विवेक १७ , वैराग्य १८ , एकांतवास, अपरिग्रह १९ ,समाधान २०, उपरामता, तेज २१, क्षमा २२, धैर्य २३, अद्रोह २४ , अभय २५ , निरहंकारिता, शान्ति २६, और ईश्वरमें अनन्य भक्ति इत्यादि सद्गुणोंका आभिर्भाव स्वभावसे ही हो जाता है । इस प्रकार शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंमें वासना और वहंभावका अत्यन्त आभाव होकर एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूपमें ही एकीभावसे नित्या- निरंतर दृढ़ स्थिति रहना ज्ञानिकी तीसरी भूमिकामें परिपक्व अवस्थाको प्राप्त हुए पुरुषों के लक्षण हैं ।
उपर्युक्त गुणों में से कितने ही तो पहली और दूसरी भूमिका में ही प्राप्त हो जाते हैं, परंतु संपूर्ण गुण का अविर्भाव तो प्रायः तीसरी भूमिका ही होता है; क्योंकि यह सब भगवत्प्राप्ति के अति समीप पहुंचे हुए पुरुषों के लक्षण एवं भगवत्स्वरूप के साक्षात् ज्ञान हेतू है; इसलिए श्रीकृष्ण भगवान ने प्राइस प्राय: इन्हीं गुणों को गीता जी के 13 वें अध्याय में श्लोक 7 से 11 तक ज्ञान के नाम से तथा 13 वें अध्याय में श्लोक 1 से 3 तक देवीसम्पदा के नाम से कहा है ।
तथा उक्त गुणों को शास्त्रकारोंने सामान्य धर्म माना है, इसलिए मनुष्यमात्र का ही इनमें अधिकार है, अतएव उपर्युक्त सदगुणों का अपने अन्त:करण में आविर्भाव कनेके लिये सभी को भगवान के शरण होकर विशेषरूप से प्रयत्त्न करना चाहिये।